तेनालीराम की मनोरंजक कहानियों में से लेकर आये हैं एक और रोचक कहानी:
राजा कृष्णदेव राय के दरबारियों में से तेनालीराम की बुद्धिमत्ता का कोई जवाब नहीं था। तेनालीराम के रोचक किस्से और चतुराई भरी बातें दरबार से बाहर निकल कर दूर दूसरे राज्यों तक पहुँच चुके थे।
तेनालीराम के रोचक किस्से सुनकर एक बार एक विद्वान् व्यक्ति राजा कृष्णदेव राय के दरबार पहुंचा। अपना परिचय देते हुए वो राजा से बोला, “महाराज, मैंने सुना है आपके दरबार में एक से बढ़कर एक विद्वान् हैं और वो हर सवाल का जवाब दे सकते हैं।”
उसकी बात सुनकर राजा कृष्णदेव राय बोले, “हाँ आपने सही सुना है, हमारे दरबार में विद्वानों को कोई कमी नहीं है। और हमें इनकी बुद्धिमत्ता पर गर्व है।”
उस विद्वान् व्यक्ति ने राजा कृष्णदेव राय को चुनौती देते हुए कहा, “क्या आपके दरबारियों में से कोई भी मेरी मातृभाषा बता सकता है?”
ऐसा कहकर उस विद्वान ने कई भाषाओं में अपना व्याख्यान दिया। सभी भाषाओँ में वो इतना धाराप्रवाह बोला कि कोई भी अनुमान नहीं लगा पाया कि इस व्यक्ति की मातृभाषा कौनसी है? सभी दरबारी सोच में पड़ गए। किसी को कोई उत्तर नहीं सूझ रहा था।
महाराजा कृष्णदेव को अब सिर्फ तेनालीराम से ही उम्मीद थी।
राजा ने तेनालीराम की तरफ देखा। वो बोला महाराज, “मातृभाषा तो हम इनकी बाद में भी बता देंगे। ये इतने बड़े विद्वान हैं, पहले मुझे इनकी सेवा का मौका दें। मैं आपसे आग्रह करता हूँ मुझे इनकी सेवा का अवसर प्रदान करें।”
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राजा के कुछ समझ नहीं आया, लेकिन उसने आज्ञा दे दी। विद्वान् को अतिथिगृह में ठहरा दिया गया और तेनालीराम उनकी सेवा में लग गया।
तेनालीराम ने पहले दिन उनकी खूब सेवा की। अगले दिन जब सुबह तेनालीराम उनसे मिलने पहुंचा तो वो विद्वान् एक पेड़ के नीचे आसन लगाकर बैठे हुए थे। तेनालीराम ने उनके पास पहुंचकर उनके पैर छुए और पैर छूने के बहाने एक कांटा उनके पैर में चुभा दिया। वो विद्वान दर्द से छटपटाने लगे और तमिल भाषा में “अम्मा-अम्मा” कहकर तेनालीराम को भला-बुरा कहने लगे। तेनालीराम ने तुरंत विद्वान से माफ़ी मांगी और अपने राजवैध्य को बुलाकर उनका उपचार करवाया।
अगले दिन वो विद्वान सभा में आये और राजा को संबोधित करते हुए बोले, “महाराज, आपकी सेवा आभार के लिए बहुत धन्यवाद्। अब और कितने दिन मुझे यहाँ रखेंगे। अभी तक आपका कोई भी दरबारी मेरी मातृभाषा नहीं खोज पाया है।”
महाराजा कृष्णदेव पूरी तरह से आश्वस्त थे कि तेनालीराम ने उत्तर ढूंढ लिया होगा।
उसकी ये बात सुनकर महाराज कृष्णदेव तेनालीराम की तरफ देखने लगे। राजा को अपनी और देखता देख तेनालीराम खड़े हो गए और बोले, “महाराज! इनकी मातृभाषा तमिल है।”
तेनालीराम का उत्तर सुन वो विद्वान बोल पड़ा, “वाह!वाह! तेनालीराम, तुमने बिलकुल सही उत्तर दिया है। मेरी मातृभाषा तमिल ही है। पर मैं अचरज में हूँ कि आपने इसका पता कैसे किया?”
तेनालीराम ने जवाब दिया, “है अतिथि! पहले मैं आपसे क्षमाप्रार्थी हूँ, क्योंकि कल मैंने जानबूझकर आपके पैर में कांटा चुभाया था। जब मैंने आपके पैर में कांटा चुभाया तो आप तमिल भाषा में “अम्मा-अम्मा” पुकार रहे थे। इसी से मैंने अनुमान लगा लिया की आपकी मातृभाषा तमिल ही है। क्योंकि जब व्यक्ति किसी दुःख- तकलीफ में होता है तो उसके मुख से अपनी मातृभाषा में ही शब्द निकलते हैं। वो सारे बाहरी आवरण छोड़कर अपनी ही भाषा में माँ या परमात्मा को याद करता है।”
तेनालीराम का उत्तर सुन वो विद्वान बहुत प्रसन्न हुए और बोले, “तेनालीराम, आप वास्तव में बहुत कुशाग्र और बुद्धिमान व्यक्ति हैं। मुझे आपसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई।” ऐसा कहकर उस विद्वान ने महाराज से जाने के आज्ञा ली और वहां से चले गए।
अतिथि के मुख से तेनालीराम की बुद्धिमत्ता की तारीफ सुन महाराज कृष्णदेव बहुत प्रसन्न हुए और अपने गले से हार उतारकर तेनालीराम को भेंट स्वरुप दे दिया।
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