हिंदी कहानी - बादशाह अकबर और उसकी एकाग्रता :

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बादशाह अकबर और उसकी एकाग्रता :

एक बार बादशाह अकबर अपनी प्रजा का हाल जानने के लिए अपने राज्य में घूमने निकले। उस समय उनके साथ चार-पांच दरबारी ही थे। घुमते घुमते बादशाह अकबर एक गाँव के निकट पहुंचे, तभी उनकी नमाज का समय हो गया। उन्होंने अपने दरबारियों को कोई साफ जगह देखने को कहा, जहाँ पर वो नमाज़ पढ़ सकें। लेकिन गाँव की ओर जाते हुए रास्ते को छोड़कर कोई ऐसी जगह नहीं थी जहाँ नमाज़ अदा की जा सके। इसलिए बादशाह अकबर ने उसी रास्ते पर ही नमाज़ पढने के लिए अपनी जायेनमाज़ (नमाज़ पढने के लिए बिछाई जाने वाली चटाई) बिछा दी।

बादशाह अकबर नमाज़ पढने लगे और उनके दरबारी वहां आसपास के पेड़ों की ओर चले गए।

बादशाह अकबर नमाज़ पढ़ ही रहे थे कि तभी वहां गाँव के रस्ते से एक युवती आ पहुंची। ऐसा लग रहा था जैसे वह युवती अपने होश में नहीं है, उसे किसी भी चीज का कोई भान नहीं है। वह बस उस रास्ते पर सीधी चलती जा रही थी और ऐसे चलते – चलते ही वह बादशाह अकबर की जायेनमाज़ पर पैर रखते हुए आगे बढ़ गई। बादशाह अकबर को यह देखकर बहुत क्रोध आया लेकिन नमाज़ में होने की वजह से वह कुछ न कह सके।

कुछ देर बाद वह युवती एक व्यक्ति के साथ वापस उसी रास्ते पर लौटी। बादशाह अकबर तब तक अपनी नमाज़ पूरी कर चुके थे और अपने दरबारियों के साथ वहां से जाने की तैयारी कर रहे थे। उस युवती को वापस वहां देखकर उन्हें क्रोध आ गया और उन्होंने उसे अपने पास बुलाकर डांटा, “हे मुर्ख औरत! क्या तुझे नहीं दिखा कि मैं नमाज़ पढ़ रहा हूँ जो तू जायेनमाज़ को कुचलती हुई चली गई।”

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युवती बोली, “जहाँपनाह! मैं आपसे माफ़ी चाहती हूँ। मेरे शौहर कई वर्षों से परदेश गए हुए थे। आज अनेक वर्षों के बाद जब उनके आने की खबर मिली तो मैं अपनी सुध-बुध खोकर उनसे मिलने को चल पड़ी। रास्ते में आपकी जायेनमाज़ पर कब मेरा पैर पड़ गया, मैं यह जान भी नहीं सकी। लेकिन जहाँपनाह, आप तो अल्लाह की इबादत कर रहे थे। अपना ध्यान अल्लाह में लगाए हुए थे, फिर आपने मुझे कैसे देख लिया?”

युवती की बात सुनकर बादशाह अकबर को अपनी भूल का एहसास हुआ। उन्होंने उसे युवती को माफ़ कर उसे वहां से जाने दिया और साथ ही भविष्य में सच्चे मन से इबादत करने का संकल्प लिया।

यदि मनुष्य इबादत अथवा उपासना आदि में सच्ची एकाग्रता को छोड़कर अन्य बातों में रम जाता है तो ऐसी इबादत उसके किसी काम नहीं आती। ये सिर्फ वक़्त की बरबादी ही होती है। आंतरिक भाव से परम पिता परमेश्वर को चाहना ही साधना का सरल और सच्चा रहस्य है। सच्ची एकाग्रता से परिपूर्ण प्रार्थना ही भक्त को परमेश्वर तक पहुंचाती है।

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